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12-Sep-2019

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कृष्ण का क्रोध 
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यह, वह समय है जब संसार का सबसे भीषण युद्ध "महाभारत" समाप्त हो चूका है । और द्वारिका अब पहले जैसी नहीं रही थी। यद्यपि कृष्ण के मुकुट में अब भी मोरपंख सुशोभित होता था, परन्तु कुछ केश अब श्वेत हो चले थे। कभी वह भी समय था कि कृष्ण के संकेत पर पूरा आर्यावर्त डोलता था, और अब यह हाल था कि सामने भले ही कोई अवहेलना न की जाती हो, पर अब कृष्ण के कर्मवाद को अपनाने में किसी की रुचि नहीं थी। पुरानी पीढ़ी ने जो ऐश्वर्य अपने बाहुबल से प्राप्त किया था, वो उसे अब जी भरकर भोगने में लिप्त था और नई पीढ़ी ने तो अपने नेत्र ही इस वैभव-विलास में खोले थे।

महाभारत युद्ध को समाप्त हुए छत्तीस वर्ष बीत चुके थे। थोड़े-बहुत अपशगुन तो कई वर्षों से दिख रहे थे पर आज की सुबह विचित्र ही थी। सूर्य उगा तो उसके किनारों में लाल, काला, धूसर रंग दिखाई दिया। नदियों का जल रेत में लुप्त हो गया। कुहरा छा गया, और फिर अचानक ही प्रचंड तूफान आने लगा। कंकड़ और पत्थर की बारिश होने लगी।

अगले दिनों में एक से एक बढ़कर अपशगुन हुए। घरों से चूहे निकलने लगे। उनकी संख्या इतनी बढ़ी कि वे सड़कों पर उन्मुक्त विचरते दिखाई देने लगे। सोते व्यक्तियों के बाल और नाखून काट ले जाते। बकरों के मुँह से गीदड़ों की आवाजें आती। औरतों के गर्भ गिर जाते और गौएँ मृत वत्स जनती। लोगों को काले-पीले वर्ण का एक व्यक्ति दिखाई देता जो वृष्णियों और अन्धकों के घरों में झाँक-झाँक कर देखता। लोग उसपर बाण मारते पर उसे एक भी बाण नहीं लगता।

बलराम मद्यपान के रसिक थे। परन्तु उन्होंने अचानक ही पूरी द्वारिका में मद्यपान और इसका उत्पादन निषिद्ध कर दिया था। लोगों ने चोरी-छिपे मद्य बनाना और पीना शुरू कर दिया।

एक दिन कृष्ण अपने दाऊ के पास आए और उनसे थोड़ी देर मंत्रणा के बाद सभी वृष्णियों, अन्धकों और भोजों को तीर्थयात्रा करने की राजाज्ञा पारित करवा दी। अगली प्रातः सभी जन समुद्र तट के प्रभासतीर्थ की ओर बढ़ चले।

प्रभासतीर्थ पर सभी लोग अपने-अपने िकानों पर अपनी स्त्रियों को छोड़ यादव-सभा में सम्मिलित होने गए। वहाँ योगवेत्ता उद्धव भी आये थे, जिन्हें कृष्ण ने कुछ सोचकर शीघ्र ही विदा कर दिया।

अधिकाशतः यह देखा गया है कि वीरों की सभा में, जब वीरों के मन में अपने नेता के लिए वह सम्मान नहीं रह जाता तो वे उच्श्रृंखल हो जाते हैं। कृष्ण और बलराम अब अप्रासंगिक हो चुके थे। जब उनके ही भाई और पुत्र, सारण, गद, चारुदेष्ण, साम्ब, प्रद्युम्न ही उनकी नहीं सुनते तो अन्य से क्या अपेक्षा करना।

मद में चूर सात्यकि ने अपने विरोधी कृतवर्मा का उपहास उड़ाते हुए कहा, "युद्ध पश्चात मुर्दों की तरह सोए हुए पाण्डवपुत्रों और पांडव सेनापति धृष्टधुम्न की हत्या करने वाले इन कृतवर्मा ने यादवों के माथे पर कालिख पोत दी है। इन्हें यादव समाज कभी भूल नहीं सकता।"

असमय ऐसी बात उ ाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। पर जब सिर पर काल हो तो सात्यकी जैसे धर्मनिष् व्यक्ति भी अनुचित कर्म कर जाते हैं। फिर कृतवर्मा तो था भी ईर्ष्यालु व्यक्ति, उसने पलट कर कहा, "अरे! कटी भुजाओं वाले और उपवास कर अपने प्राण त्यागने को तत्पर भूमि पर आसन लगाकर बै े वृद्ध कुरु भूरिश्रवा की जघन्य हत्या करनी वीरता है क्या कपटी सात्यकि? तू कृष्ण का चमचा है, तो तेरे सारे कर्म धर्म हो गए, और मैं कौरवों के पक्ष से लड़ा तो अधर्मी हो गया? वाह रे तेरा न्याय!"

ऐसी बातें सुन सात्यकि क्रोध से भर उ े। उन्होंने खड्ग सम्भाला और बातों ही बातों में विद्युतवेग से कृतवर्मा का शीश उतार दिया। यह देख भोज और अंधक कुल के वीरों का रक्त खौल उ ा। उन्होंने चारों ओर से घेरकर सात्यकि पर प्रहार करना शुरू किया। सात्यकि को घिरा देख रुक्मिणीनन्दन महापराक्रमी प्रद्युम्न ने खड्ग उ ाया और सबको काटते हुए सात्यकि के पास पहुंचकर उन्हें सम्भाला। परन्तु विरोधी पक्ष के वीर अधिक थे। सात्यकि तो मरणासन्न अवस्था में थे ही, प्रद्युम्न भी इतनी घिचपिच में कुछ न कर सके। देखते ही देखते कृष्ण के परममित्र सात्यकि और प्रिय पुत्र प्रद्युम्न प्राण त्यज भूमि पर आ गिरे।

कृष्ण के नेत्र रक्तिम हो उ े। उन्होंने भयंकर चीत्कार करते हुए भूमि पर उगे एक तने को उखाड़ लिया और उसी से प्रहार करने लगे। जिसे भी वह तना लग जाता उसकी अस्थियों का चूरा बन जाता और वह काल के खुले मुख में गिर जाता। कौन किसके पक्ष से है, कौन किसे मार रहा है, कुछ पता नहीं लग रहा था। जैसे फतिंगे फटाफट मर जाते हैं, उसी प्रकार वृष्णि, अंधक और भोज वीर धड़ाधड़ मरने लगे। औरों की तो कौन कहे, कृष्ण के परिवार के साम्ब, गद, अनिरुद्ध सभी मर गए। कृष्ण के क्रोध में सब स्वाहा हो गए। लगा कि जैसे कृष्ण ने अपने सम्पूर्ण जीवन का क्रोध उड़ेल दिया हो।

जिन यादवों को लेकर उन्होंने सम्पूर्ण आर्यावर्त को कर्मवाद की, धर्म की शिक्षा देनी चाही थी, उन्होंने ऐन मौके पर कृष्ण का साथ छोड़ दिया था। जिन यादवों को उन्होंने कंस के अत्याचारों से मुक्त कर सम्मानजनक जीवन प्रदान करने और सशक्त बनाने का प्रयास किया था, वे यादव शक्तिसम्पन्न होकर कृष्ण बनने के स्थान पर स्वयं कंस बनने लगे थे।

जब कोई नहीं बचा तो कृष्ण का सारथी दारुक उनके सम्मुख आकर रोते हुए बोला, "प्रभु, सबका विनाश हो गया। अब शांत हो जाएं प्रभु।"

कृष्ण ने अपने चेहरे से रक्त साफ करते हुए दारुक से पूछा, "बलदाऊ कहाँ हैं दारुक? वे आरंभ में तो मेरे साथ ही बै े थे, फिर इस पागलपन के आरंभ होने पर वे मुझे दिखाई नहीं दिए।"

"जनार्दन, वे इस दिशा से वन की ओर निकल गए थे। आइए, हम भी उधर ही चले।"

कृष्ण दारुक के साथ जाने लगे। मार्ग में दारुक ने पूछा, "अच्युत, आपने अपने ही वंश का संहार क्यों किया प्रभु।"

"दारुक ! त्रेता के राम इक्ष्वाकु वंश के थे। उसी इक्ष्वाकु वंश के राजाओं ने इस द्वापर में द्रौपदी के अपहरण में जयद्रथ का साथ दिया था। किसी महापुरुष का किसी कुल में जन्म ले लेने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वह कुल जन्मजन्मांतर तक पवित्र हो गया और उसके वंशजों को कुछ भी करने की स्वतंत्रता है। यादव कुल में यदि इस कृष्ण ने जन्म लिया तो कंस भी इसी कुल में पैदा हुआ था। मैंने अपने कुल के सभी कंसों का वध कर दिया है। आशा करता हूँ कि अब यादवों में केवल कृष्णों का जन्म होगा जो हमारे आर्यावर्त को पुनः कर्म का, धर्म का मार्ग दिखाएंगे।"

[श्रोत - इंटरनेट]

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