Search here
12-Feb-2020 , Updated on 2/13/2020 4:58:15 AM
Nav Pallav Zindagi
Playing text to speech
दिनांक 8 दिसंबर, प्रयागराज स्थित एक छोटा कस्बा करेली, एक ओर जहाँ करेली में जश्न हो रहा था वहीं संगम की लहरें व्यथित थी। मानों उस दिन लहरों को किसी के नैन द्वारा बहना था या फिर किसी अग्नि की ऊष्मा को ठंडा करना था।
अलाव को तापते हुए ज़ुमरा ने अपनी दोस्त आलिया के कॉल को उठाया, “आ रही हो?“ आलिया ने फोन पर ज़ुमरा से पूछा और दोनों मग्न हो गई उल्लास भरी वार्तालाप में।
ज़ुमरा फोन पर बात करते हुए रसोई की ओर चलती जा रही थी। “नहीं तो!“ ज़ुमरा ने उदास मन से हँसकर जवाब दिया
”ठीक है शाम 5ः00 बजे तक तैयार रहना सीया आएगी तुम्हें लेने।”
(आलिया और सीया, इनको दोस्त कहा जाए, साथी या हमदर्द। ज़ुमरा की जान थी दोनों।)
”ठीक मोहतरमा जैसा आप कहें पर मेरे लिए मैगी का इन्तिज़ाम कर लेना” और यह कहते हुए जुमरा ने अपनी प्लेट में खुद के लिए बिरयानी परोसी और गैस स्टोव की आंच को बंद करना भूल गई।
”मिलते हैं!” आलिया ने कहा।
”अलविदा!” बोलते ही ज़ुमरा की आवाज़ चीख में तब्दील हो गई और वह उन नामों को आवाज़ देने लगी जो कहीं से भी उसे और उसके दर्द को सुन सकते थे।
”माँ पापा आलिया, कोई मुझे बचाओ।”
[ READ ALSO - Mere Papa ]
उसके पिता ने लपटों से लड़ाई लड़, बेसुध पड़ी आग के आगोश से अपनी आत्मजा को खींच के बाहर निकाला। सलीम अली, जुमरा के पिता ने न सिर्फ अपनी लाडो को बचाया अपितु अपनी लाडो की शान, उसके सुनहरे घने केश को और लबों पर आती मासूम सी मुस्कान को भी बचाया।
सलीम को भी कुछ लपटों ने क्षति पहुँचाई पर एक बाप का दर्द खुद के दर्द से कहीं अधिक था। सलीम अपनी लाडो को हाथों में लिए इधर-उधर भागते रहे। आज वह सपने भी बेसुध थे, जो सलीम का अभिमान थे।
वो सपना जिसमें ज़ुमरा जिंदगी के सफर में आगे बढ़े और मुस्कुराती चले।
उल्लास का वक्त हो गया समाप्त,
अलविदा जो सुना था दोस्त से
अनसुनी मौत की घंटी ने दस्तक दे दी,
मुस्कुराहट जो मिली थी वह गुम सी गई
अंग जला ज्वाला की चादर से,
वस्त्र ने दिया था धोखा खुद को भस्म कर के
दर्द उसकी आँखों से ज्यादा मालूम हुआ,
जले छालों से ठंड मौसम में हुई गर्मी महसूस।
“माँ! मैं अकेली हूँ“ ज़ुमरा का दिल इन शब्दों को चीख रहा था। लगातार अपना दर्द करहा रहा था। बेसुध ज़ुमरा के अधर शान्त थे। “माँ मुझे कहीं नहीं जाना!“ उसका बेजान देह अफसोस प्रकट कर रहा था।
दिन में रिश्तेदार व दोस्तों की लगातार बैठक और पंचायत उसके इर्द गिर्द रात होते ही कोरे कागज की भाँति रिक्त हो जाती थी। यह भीड़ ज्यादा दर्दनाक थी किसी दैहिक दर्द से।
दिन के कई साथी थे अपितु ना था कोई उसके दर्द का सहारा। ज़ख्म पर मरहम लगातेे हुए उसकी जली उँगलिओं को सहारा देते हुए, माँ ने बिना बोले विशवास दिलाया कि, वह उसके साथ हंै और उसके दर्द को बाँट लिया।
इससे उसके चेहरे पर मुस्कान बिछ गयी। आँखों में चमक आ गई और सुकून भरी झप्पी उसका दर्द ले गई।
मा 16 साल से गठिया और आंतों के ज़ख्म और नींद की दवा लेते-लेते मजबूर व लाचार खुद ही एक दुखिया थीं। वह फिर भी हिलते हाथों से हमेशा अपनी लाडो को सहारा देती रहीं और हमेशा ही एक मजबूत किनारा बनी रहीं।
खुली आँखों ने देखे कुछ झुलसाते पल,
कभी अँधेरे सी रोशनी, कभी रोशनी में अँधेरा
यह पल ही चलना सिखा देता हंै इंसान को अकेला।
एक महीने के सफर में तकिए को गले लगाते हुए, नींद की गोलियों की लोरी के सहारे नींद और आराम से भी दिल थक चुका था।
चादर के टुकड़े ने ढ़क रखा था सब
छुपाए रखा था हर एक आँसू-ओ-दर्द,
जिस्म चमक रहा था रूह बिलख रही थी,
जल कर भी जीने की चाह थी प्रबल।
[ Read Also - Glitz and glam of valentine's day ]
‘तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी हैरान हूँ मैं‘ गाने को सुनते हुए उसने अनगिनत दर्द दबायें। धीरे-धीरे उसके घाव सूखने लगे। नासूर अब फूल के तरह खिलने लगे। घाव अब उपलब्धि के निशान छोड़ कर सदा के लिए गायब हो गए।
नयन से शोक को पोंछते हुए उसने समझा, “जो होता है अच्छे के लिए होता है परंतु क्यों नहीं समझ पाते हम प्रकृति के इस संकेत को?“
‘तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी‘ को गुनगुनाते जुमरा अब अपने बेचैन पलों को हँस कर जी रही थी।
ठंडी चादर ओढ़े आसमान से गिरती हुई ओस,
जिंदगी दिखाई दी जब रूह से निकला एहसास-ए-अफसोस।
”कब-कैसे कटेगा यह दिन यह अँधेरा समय!“ ऊपर वाले से यही प्रार्थना करती कि जल्द से जल्द उसके ज़ख्म पूरी तरह से सूख जाएँ और एक दिन उसने प्रायागराज में लगे कुम्भ मेले में जाने की तैयारी आरंभ की।
खुद को सजाने सँवारनें की, एक नई पहचान के साथ भीड़ में चलने की तैयारी। चलने और बात करने में विवश ज़ुमरा का एक मात्र सहारा उसकी किताबें और उसका साहस उसकी पढ़ाई थी।
प्रातः 5ः00 बजे वह उठी और उसने अपने केश को धोया, बदन पर मरहम लगाया और काली जींस और लाल जैकेट को पहनकर उसने अपने बालों को कर्ल किया।
लबों पर लिपस्टिक लगाते हुए उसने अपने पिता की दी हुई सुन्दर भेंट को सजाया और कुछ दुआओं के साथ उसने बाहर कदम निकाला।
‘अल्हम्दुलिल्लाह‘ कहकर और मुस्कुरा कर ज़ुमरा चल पड़ी मेले की ओर। मेला जो रंग, मुस्कान और प्रसन्नता भरे क्षणों का मेल था।
हर ओर से आए लोग, भाँति-भाँति के खाने के सामान, बहकी-बहकी सुगंध और खिल-खिल करते झूले की वह ऊँचाई को देखते हुए उसने मेले में अपने दर्द और ज़ख्म को दफना दिया। साथ ही साथ अपनी उन्नति की ओर कदम आगे बढ़ाया।
यादों का पिटारा लिए एक सुरीली बाँसुरी बजाते हुए वह घर को वापस पहुँची।
जुमरा माँ से बोली, “माँ मुझे कल जल्दी उठा देना। मुझे परीक्षा की तैयारी करनी है।”
“ठीक मेरी बहादुर जु़म्मु”, माँ ने बेटी के माथे को चूमते हुए कहा और बत्तियाँ बुझा दी।
“बहादुर?” जु़मरा थोड़ा सोचते हुए मुस्कुराई।
वह यही सोचती रहती कि उसका यह संघर्ष मार्च में होने वाली १२ वीं परीक्षा में भी उसका साथी बन जाए। ये बहादुरी उसको टूटने न दे। दर्द पे मरहम, निराशा में उम्मीद और परीक्षा में उसका कलम बन जाए।
सब सोचते-सोचते ज़ुमरा अपने साहस का पुरुस्कार ’बांसुरी’ को थामे हुए सो गई।
जीवन संघर्ष का पर्याय ही नहीं है किन्तु सीख और विकास की भी प्रक्रिया है। वह जनवरी के महीने में फिर से रोई पर खुशी के आँसू के साथ क्योंकि दोस्तों संग गप्पे, कैंटीन का समोसा और टीचर की डांट उसके नए जीवन का आशीर्वाद बन चुका था।
विद्यालय दुबारा आरंभ करते हुए उसने विद्यालय की आखिरी क्षणों को समेटा और खुल के नव पल्लव जिंदगी को विभूषित किया।
Read more at : yourviews.mindstick.com
Comments
Solutions
Copyright 2010 - 2024 MindStick Software Pvt. Ltd. All Rights Reserved Privacy Policy | Terms & Conditions | Cookie Policy