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24-Jan-2020
"Halwa-Poha" Politics
Playing text to speech
देश की हलवा-पोहा राजनीति
देश की राजनीति इतनी ज़्यादा गिर चुकी है कि आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते है. आपको लग सकता है कि अब ऐसा क्या हो गया जिसके कारण मैं ऐसी बात कह दी है. अब हिन्दू-मुस्लिम की घटिया राजनीति प्रत्यक्ष रूप में नहीं अपितु इनडायरेक्टली की जा रही जिसके चलते हमारे लोकतंत्र पर गहरा आघात पहुँच रहा है. अब खाने को लेकर हिन्दू-मुस्लिम का कलेवर तलाशा जा रहा है.
पहले शुरुआत करते है हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी मियां जो वित्त मंत्रालय की हलवा सेरेमनी पर तंज कस्ते हुए कह जाते है कि हलवा तो एक अरबी शब्द है और सरकार को तो इस पर भगवान की कृपा से बैन लगा देना चाहिए और आखिर हलवा शब्द आया कहाँ से ? अब इस धूर्त व्यक्ति को कौन समझाए कि आने हलवा एक आगज शब्दावली का शब्द है जिसके तहत उसका रूढ़ अर्थ हुआ मी ा व्यंजन.
अब हलवा एपिसोड के बाद आज सामने आते है बंगाल में भाजपा को आगे बढ़ाने में लगे मध्य प्रदेश से नाता रखने वाले कैलाश विजयवर्गीय, जिनके लिए घर के आसपास काम करने वाले लोग केवल बांग्लादेशी ही हो सकते हैं क्योंकि वह पोहा खाकर ही अपना काम चला पाते है. अब इन्हें भी नफरत ने अँधा कर दिया जो यह देख नहीं पाते कि निरंतर काम न पाने वाले दिहाड़ी मज़दूर किस तरह से पोहा खाके ही अपना पेट पालते है.
पोहा कब से बहार का हो गया ? यह तो चूड़े से ही बनता है और चावल का ब्रेकफास्ट प्रारूप है. मगर विजयवर्गीय को तो विवाद पैदा कर ध्रुवीकरण की राजनीति करनी की लत लग चुकी है.
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दोनों ही नेता अविवेकपूर्ण नफरत के दो पहलु है जिनको नज़रअंदाज़ करना ही हितकारी और शुभ होगा. खाना किसी मज़हब की पहचान नहीं हो सकती है. जब सब्ज़ियां और फलों से हमारा कोई नाता नहीं था तो पके खाने के लिए हमारे आदिवासी पूर्वज जंगली जानवारो का आहार करते थे.
उस समय न वर्ण, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय था केवल इंसानियत थी और उसी के तहत इंसान अपना भूखा पेट भरता था. अब आपको जो खाना है खाइये क्योंकि यह दोनों शख्स जिस हलवा-पोहा पर हिन्दू-मुस्लिम की बात कर रहे है वह उसी का सेवन कर अपना स्वास्थ्य बना रहे है. देश की यह हलवा राजनीति केवल असली मुद्दों से भटकाकर आपको नफरत के अँधेरे में धकेलने की साज़िश है और इसका इलाज केवल इनसे छुटकारा ही है और कुछ नहीं.
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