By
Rahul Roi
दंश
कुछ मित्र यह देख बड़े परेशान रहते हैं कि भारत की किसी हस्ती की मृत्यु पर, या क्रिकेट हारने पर या चंद्रयान-II की असफलता (आंशिक) पर, मतलब भारत के किसी भी क्षेत्र में कैसे भी नुकसान पर, मजहब विशेष के लोग बुक्का फाड़ कर क्यों हँसते हैं।
किसी भी संवेदनशील मनुष्य को इससे तकलीफ होगी कि देश के नुकसान पर कोई हँस रहा है। संवेदना के साथ दिक्कत ही यही है कि वो सम-भाव रखकर सब कुछ देखता है। अपने ही समान मानुष मानता है सबको। इसलिए दुखी भी होता है। लेकिन क्या विष्ठा खाते सूअर को देख, या माँस चिचोड़ते गीदड़ को देख आपको कोई तकलीफ होती है?
मेरा प्रश्न है कि आप ऐसों को मनुष्य मानते ही क्यों हैं?
बात पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले पर हो या सुषमा स्वराज जी की मृत्यु पर हँसने वाले ये अहसान-फरामोश भूल जाते हैं कि युद्धग्रस्त यमन से जो हजारों लोग बचाकर वापस लाए गए थे, उनमें से अधिकतर तो उन्हीं के मजहब के लोग थे। केवल भारतीय ही नहीं, अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस जैसे मजबूत देशों के अलावा पाकिस्तान जैसे इस्लामी मुल्क के नागरिक भी बचाए थे सुषमा ने।
ये इतने घिनौने लोग हैं कि अपनी ही भलाई करने में लगे शख्स के खिलाफ दरगाहों में मन्नतें मांगते हैं। इन्हें तकलीफ है कि देश का मुखिया मोदी है। तकलीफ की वजह क्या है, इन्हें पता ही नहीं। बस अंधों की दौड़ है। अगर वजह गैर-मजहबी होना है तो मनमोहन, देवगौड़ा, नरसिम्हा ये सब भी गैर-मजहबी थे। फिर दिक्कत क्या है?
यही कि मोदी हिन्दू होते हुए भी मुसलमानों की भलाई करने में लगा हुआ है? जाहिलियत से निकालने की कोशिश कर रहा है? फर्जी नारों और आसमानी ख्वाबों की जगह हकीकत में कुछ परोस रहा है?
गुजरात दंगों का प्रदेश था। आजादी के बाद कोई ऐसा साल नहीं बीता जब वहाँ कहीं न कहीं दंगे न हुए हों। कौन मरता था उनमें? और अब कितने सालों से दंगे नहीं हो रहे? कौन सुख-चैन से जी रहा है?
कश्मीर में अलगाववाद के कारण किनके बच्चे मर रहे थे? किन लोगों को देश से अलग पहचान के कारण अलग निगाहों से, टुकड़ाखोर और परजीवी की निगाह से देखा जाता था? अब किन लोगों को राष्ट्र के सभी नागरिकों की तरह बराबर का नागरिक माना जाएगा? कश्मीर के मुसलमान और पुडुचेरी के मुसलमान में आज कोई फर्क नहीं है। इससे किसका फायदा हुआ?
जो बात पाक कुरान में कहीं नहीं है, सभी प्रमुख इस्लामी मुल्कों में नहीं है, उस घटिया तलाक-ए-बिद्दत को खत्म करने से किसका भला हो रहा है? कुरान के नाम पर गैर-इस्लामी तलाक और फिर उसके बाद हलाला जैसी चीजों से क्या इस्लाम दागदार नहीं हो रहा था? तीन-तलाक को हटाने से सिर्फ मुसलमान औरतों का ही भला हुआ या इस्लाम की भी सेवा हुई?
मोदी हिन्दू है। पर अजब है कि एक भी काम केवल हिंदुओं के लिए नहीं किया। बोलेगा तो 'एक हाथ में कुरान और एक हाथ में लैपटॉप' बोलेगा। कभी 'एक तरफ वेद और दूसरी तरफ कंप्यूटर' नहीं बोला। मन्दिर नहीं बनवाया। छह साल हो गए। और तीन तलाक पर अड़ गया। नहीं हुआ तो अध्यादेश ले आया। फिर अगली बार कानून बना दिया। पता था कि मुसलमान इसे गलत तरीके से लेंगे, सरकार गिर सकती थी। फिर भी किया। 370 हटाने से देश के सभी नागरिक बराबर हो गए, कश्मीरी और इंदौरी मुस्लिम में कोई फर्क नहीं रहा। एक झटके में हटा दिया। जानता था कि इसे मुसलमान गलत तरीके से लेंगे, शायद अगला चुनाव न जीते। पर हटा दिया।
जानता है कि आज मन्दिर बनवा दे तो इससे हिन्दू उछल पड़ेगा, बाग-बाग हो जाएगा। अगले पचास साल तक इस पार्टी को कोई हटा नहीं सकेगा। जब तक जियेगा, प्रधानमंत्री बनकर जियेगा। और वो ऐसा जब चाहे तब कर सकता है। पर वो हिंदुओं के लिए नहीं करता, पर मुस्लिमों के लिए अध्यादेश लाकर उनकी गैरइस्लामी प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त कर देता है।
फिर भी, इतना कुछ के बाद भी वे क्यों करते हैं नफरत?
इसका कोई जवाब नहीं, है तो बस यह कि इन्हीं लोगों ने पाक-परवरदिगार और पैगम्बर मुहम्मद का नाम लेकर मुहम्मद साहब के दामाद और नवासों का कत्ल कर दिया। मुहम्मद साहब की शिक्षा ने यह तो नहीं ही कहा होगा कि उन्हीं के खानदान के लोगों को मार दो।
नहीं कहता कि सब ऐसे ही होंगे। कैसे हो सकते हैं! हिंदुओं में कहाँ सब देशभक्त या धर्मभक्त हैं? पर जो वैसे नहीं हैं, वो खामोश रहते हैं, और उनकी खामोशी उनकी सहमति प्रतीत होती है। इस मजहब के प्रति जो धारणा बनती जा रही है, उसमें इन बुक्काफाड़ हसौड़ों का हिस्सा है, तो चुप बैठे रहने वाले लोगों का योगदान भी कुछ कम नहीं है। ध्यान रहे कि यह धारणा मात्र राष्ट्रीय नहीं है, यह वैश्विक धारणा है जो दिन-ब-दिन दृढ़ होती जा रही है।