Ideological Dilemma
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06-Sep-2019, Updated on 9/6/2019 12:40:48 AM

Ideological Dilemma

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वैचारिक असमंजस

इसमें मुझे कत्तई शक नहीं कि भारतीय जनता में से अधिकांश लोग वीर थे और हैं, विद्वान थे और हैं, मेहनतकश थे और हैं। इसके साथ ही मुझे इस बात का पूरा यकीन है, और मेरे इस यकीन के ऐतिहासिक दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैं कि प्रयोगात्मक रूप से अधिकांश भारतीय दीर्घकाल में, बड़े परिदृश्य में अपनी बेहतरी नहीं देख पाते। इनके दिलोदिमाग में उस विशिष्ट समय की बहुत छोटी सी, बहुत मामूली सी बात पूर्ण रूप से छा जाती है। इस छाया को हटाने की कोई कितनी भी कोशिश कर ले, उसे असफलता ही मिलती है।

तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं।

जब विदेशी मलेच्छों ने हमला किया तो उन्होंने कुछ ही समय में हमारी कमजोरी जान ली। युद्धक्षेत्र में वे हरावल दस्ते के आगे गायों का झुंड छोड़ देते। अब इधर वाले यह सोचकर कि तीर छोड़ेंगे, तोप दागेंगे तो गौहत्या हो जाएगी, चुप मारकर बै जाते। रणनीति में यह ढील भारी पड़ती और वे हार जाते। ऐसा एक दो बार नहीं, कई बार हुआ। सोचता हूँ कि क्या उनमें सब अंधे ही थे जो यह नहीं देख पाए कि अगर इन चंद गायों की हत्या के दोष से बचने के लिए हम खड़े ही रह गए तो ये गायें तो शायद बच जाए पर मलेच्छ राज में रोज अनगिनत गाय कटेंगी! उन गौहत्याओं का दोष किसके सिर जाएगा?

पृथ्वीराज चौहान की वीरता पर किसी को शक नहीं। पर इस चौहान के शासन में व्यक्तिगत वीरता को इतना प्रश्रय दिया गया कि इसके अपने सरदार आपस में लड़ मरते। एक युद्ध तो सिर्फ इसलिए हो गया कि फलां गाँव से सरदार के सात बेटों में से एक ने पृथ्वीराज दरबार के एक सरदार के आगे अपनी मूंछों पर ताव दे दिया था। आल्हा-ऊदल का नाम किसने नहीं सुना! आज भी आल्हा बड़े जोश से गाया जाता है। मामूली बात पर चौहान और चंदेल भिड़ गए जिसमें चन्देलों की तरफ से आल्हा-ऊदल थे। इस युद्ध में सिर्फ तीन वीर बचे थे। पृथ्वीराज की मित्रता किसी से भी नहीं थी। पर वह दिल्ली का अधीश्वर था। जब मुहम्मद गोरी का हमला हुआ तो जयचंद और गुजरात के भीमसेन मदद करने नहीं आए। क्यों? क्योंकि इस चौहान ने उनसे मित्रतापूर्ण सम्बन्ध नहीं रखे थे।

पहले से ही आंतरिक युद्धों में अपने अधिकांश वीरों को गवा चुका चौहान जैसे-तैसे पहला युद्ध जीत गया, पर दूसरा हार गया। यह सत्य है कि पृथ्वीराज ने जयचंद और पृथ्वीवल्लभ भीमसेन से सम्बन्ध नहीं रखे पर क्या वे दोनों अंधे थे जो यह नहीं देख पाए कि अगर चौहान अकेला पड़ गया तो हार जाएगा और वह हार गया तो अगला नम्बर हमारा होगा?

ऐसे ही तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं जब हम बहुत छोटी सी जीत के लिए बहुत बड़ी हार को आमंत्रित कर लेते हैं। हम अपनी गलतियों से कभी नहीं सीखते, बल्कि लगता है कि गलती करना ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है।

कुछ दिन पहले एक नेता ने गोडसे को अच्छा और गांधी को बुरा कह दिया। फिर सबसे बड़े नेता ने पहली नेता को कभी भी माफ न कर पाने की बात कह दी। इतने में ही लोग उस बड़े नेता के सारे पिछले काम भूल गए, उससे सारी उम्मीदों पर ग्रहण लग गया। वो गोडसे को अच्छा बोलने वाली नेता सबकुछ हो गई और भारत राष्ट्र की हर समय बात करने वाला गौण हो गया!

प्रसिद्ध लोगों के मुँह से ऐसी-ऐसी बातें सुनी कि मेरा वो प्रश्न फिर से मुँह बाए खड़ा हो गया कि क्या अंधे हैं आप सब कि बड़े परिदृश्य की ओर देख ही नहीं सकते? यह कहना कि किसी को भी चुन लेता पर इसे नहीं चुनूँगा, आपको ऐसा क्या दे देगा जिससे आप खुश हो जाएंगे? मानता हूं कि आपकी अत्यधिक कोमल भावना को उस बात से बहुत कष्ट पहुँचा है, पर उसे दुत्कार कर आप जिसके लिए भी मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, क्या वो लगातार पाँच साल आपकी भावनाओं के साथ जबरजिना नहीं करेगा?

और क्या दिक्कत है समान पक्ष में खड़े दो विरोधी सोच के व्यक्तियों के समर्थन में?

क्या आपने पहले भी ऐसा नहीं किया है?

एक सवाल पूछता हूँ। अगर आपके सामने विकल्प चुनना आवश्यक हो तो आप सुभाषचंद्र बोस और भगत सिंह में से किसे चुनेंगे?

सुभाषचंद्र को? पर उन्होंने तो गांधी के नाम पर अपनी रेजिमेंट बनाई थी। सुभाष ने अपने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में सदैव ही गाँधी को देवतातुल्य इज्जत प्रदान की।

भगतसिंह को? पर भगत ने तो युवाओं के नाम खुली चिट् ी में लिखा था कि युवाओं को सुभाष जैसे विचारहीन व्यक्ति की अपेक्षा नेहरू जैसे भविष्यदृष्टा का अनुसरण करना चाहिए।

अटल और मोदी में से किसे चुनेंगे? दोनों एक ही विचारधारा के हैं, पर उनके दृष्टिकोण में हल्का सा अंतर तो है ही!

उपरोक्त प्रश्न, केवल प्रश्न हैं। पर प्रश्न यह उ ता है कि केवल एक का चयन क्यों आवश्यक है? हम भगत और सुभाष में से किसी एक को क्यों चुनें, हम दोनों को ही उनके विरोध के साथ चुन लेते हैं। हम नरम अटल और उग्र मोदी में से दोनों को ही चुन लेते हैं। गाँधी की नीतियों पर शंका हो सकती है पर क्या उनकी देशभक्ति पर कोई शंका है? खुद गोडसे ने गांधी की महत्ता स्वीकारी थी। गोडसे के कृत्य पर सवाल उ सकते हैं पर उस मुकदमें के जज खोसला ने भी गोडसे को देशभक्त कहा था।

आपका यह अनावश्यक क्रोध, खुद को धर्माधिकारी और निर्मम न्यायाधीश दिखाने की चाह, अपने ही पक्ष के व्यक्ति की भर्त्सना कर महान बन जाने की इच्छा, आपको कहीं का नहीं छोड़ेगी। क्योंकि जो आपके लिए खड़ा है, आप उसे ही गिराने पर तुले हुए हैं।

आपके वीर/विद्वान पूर्वजों ने जो गलती बारम्बार की है, आप भी वही कर रहे हैं।

बाकी,

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