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06-Sep-2019, Updated on 10/23/2019 5:32:50 AM
The British (English) rule and Indian scripture
Playing text to speech
अंग्रेजी हुकूमत और हमारे भारतीय धर्म ग्रंथों का अस्तित्व !!
(English rule and the existence of our Indian religion texts !!)
अंग्रेजों ने हमारी धार्मिक किताबों में मिलावट की !!
किसी कथन के अंत में विस्मयादिबोधक चिह्न (!) लगाने के दो अर्थ होते हैं। पहला- आश्चर्य दिखाना, दूसरा - अपनी बात को जोर देकर कहना। अधिकांश लोग उपरोक्त कथन में प्रयुक्त इस चिह्न को दूसरे अर्थ में लेंगे। वे ऐसा ही मानते हैं और पुरजोर तरीके से इसे सिद्ध करने की क्षमता रखते हैं। मैं उपरोक्त कथन पर आश्चर्य प्रकट करता हूँ। मुझे विश्वास नहीं हो पाता कि किसी अंग्रेज ने ऐसा कुछ किया होगा।
न्याय का मूल सिद्धांत यह है कि जिस जाति-समुदाय से सम्बंधित अपराध हो उस समुदाय की सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं एवं परिस्थितियों को समझ कर न्याय किया जाए। जब अंग्रेज हमारे मालिक हुए, जब न्याय व्यवस्था उनके हाथों में आ गई तो उन्होंने भी हिंदुओं और मुस्लिमों की मान्यताओं को समझना चाहा। मुस्लिमों के मामले में बड़ी आसानी थी, कुल मिलाकर बस एक किताब पढ़नी थी। कुरान का अनुवाद कर लिया, उसके आधार पर विधि बना ली। दिक्कत हिंदुओं के साथ थी। हिंदुओं की किताबों का कोई ओर-छोर नहीं। चार 'वेद', छह वेदांग, 108 उपनिषद, महाकाव्य रामायण एवं महाभारत, अलग-अलग पंथों के आरण्यक ग्रंथ, 11 ब्राह्मण श्रुतियाँ, 18 महापुराण, शैव, वैष्णव, शाक्त और जैन धर्म के विभिन्न आगम शास्त्र, फिर इन सबके अलावा 22 स्मृतियां जिनमें से एक है मनुस्मृति।
उस समय देश की राजधानी बंगाल थी, गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स था। उसका निर्देश था कि एक हिन्दू-लॉ बनाया जाए। अब इतनी किताबों को पढ़ना या पढ़े होना एक आदमी के बस की बात नहीं, तो ग्यारह हिन्दू-वकीलों को नियुक्त किया गया। वकील मतलब ब्राह्मण। अंग्रेज ब्राह्मणों को हिंदुओं का हिमायती अर्थात वकील समझते/कहते थे। इन सबने मिलकर संस्कृत में हिन्दू-लॉ बनाया जिसे पहले फारसी में फिर इंग्लिश में अनुदित किया गया। इस हिन्दू-लॉ को पढ़ अंग्रेज विस्मित रह गए। इतने सन्दर्भ, इतनी टीकाएँ, एक-एक पंक्ति की विस्तृत व्याख्या। अंग्रेजों को समझ आ गया कि यदि विधि के लिए इन हिन्दू वकीलों की सहायता ली गई तो ये एक नया ही शास्त्र रच देंगे जिन्हें पढ़ने-समझने में ही बहुमूल्य समय व्यतीत हो जाएगा। बेहतर हो कि स्वयं की व्याख्या खुद बनाई जाए। इसके लिए संस्कृत सीखनी जरूरी थी।
कोलकाता के पूर्व न्यायाधीश विलियम जोन्स ने संस्कृत सीखी। आगे चलकर वे प्रसिद्ध भाषाशास्त्री बने, उन्होंने एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। मनुस्मृति का पहला अंग्रेजी अनुवाद इन्होंने ही किया। इस अनुवाद को पढ़ भारत के प्रति बहुत सारे यूरोपीय विद्वानों की रुचि बढ़ी। जर्मन दार्शनिक लेखक फ्रेडरिक नीत्शे ने मनुस्मृति में मानव समाज के लिए आदर्श व्यवस्था देखी। चूंकि हिंदुओं की कोई संस्था 'चर्च' नहीं थी, हिंदुओं का कोई 'पोप' नहीं था तो यूरोपियन्स जो भी व्याख्या दें वो सही। इस आपाधापी में मनुस्मृति कानून व्यवस्था का आधार बन गई।
यह सब होने के बाद भी क्या यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने मिलावट की? उन्होंने तो बस तर्जुमा किया और अपनी समझ से जो समझ आया वो अनुदित कर दिया। गलत व्याख्या के दोषी भले हों, पर उनका उद्देश्य यह तो कतई नहीं था कि हिन्दू धर्म को नीचा दिखाकर, उसकी किताबों में, मूल भाषा में मिलावट कर हिंदुओं को धर्म से फिरा दिया जाए। गलत व्याख्या का दोष केवल अंग्रेजों का ही नहीं है। हम भी तो 'शिवलिंग', तैतीस 'कोटि' देवता, और '..., सकल ताड़ना के अधिकारी' की व्याख्या में उलझ जाते हैं।
कुछ दिन पहले मेरे दिमाग ने मेरे दिमाग से प्रश्न पूछा कि इंग्लिश-मैन को अंग्रेज क्यों कहते हैं? मुझे मालूम चला कि ईसाई धर्म का तीसरा सबसे बड़ा सम्प्रदाय एंग्लिकन (Anglican) का है। पहले नंबर पर कैथोलिक और दूसरे पर प्रोटेस्टेंट हैं। भारत में तीसरा सबसे बड़ा धर्म ईसाइयों का है और उनमें लगभग सा -चालीस के अनुपात में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट हैं। बहुत ही नगण्य सा प्रतिशत गैर-कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट का है जिसमें एंग्लिकन सहित अन्य पाँच-छह समुदाय हैं।
मजे की बात देखिए कि वो अंग्रेज-सत्ता जिसका सूरज कभी नहीं डूबता था, जिसने इतने वर्षों तक भारत पर राज किया, जो एंग्लिकन (चर्च ऑफ इंग्लैंड) को मानता था उसके अनुयाइयों की सँख्या भारत जैसे धर्मभीरु देश में, आसानी से मतांतरित हो जाने वाली जनता के बीच में नगण्य है!
इस देश पर मुस्लिमों ने सदियों राज किया। उनके जायज-नाजायज तरीकों का यह फल हुआ कि देश की एक बड़ी आबादी आज मुस्लिम है। पर गौर कीजिए कि एक खास फिरका, सुन्नी ही बहुतायत में हैं। यह इसलिए कि शासक सुन्नी था। शिया और अन्य सम्प्रदायों को उंगलियों पर गिना जा सकता है।
कहने का अर्थ यह कि जब स्टेट स्पॉन्सर्ड कन्वर्जन होगा तो वो अपने सम्प्रदाय के लिए होगा। पर अंग्रेजों के होते एंग्लिकन की संख्या नहीं बढ़ी तो क्यों नहीं बढ़ी? इसलिए कि अंग्रेज ने जनता के धर्मों के बीच कितनी भी लड़ाइयां लड़वाई हों, अपना धर्म कभी थोपने की कोशिश नहीं की। उसने तो दशकों तक मिशनरियों को भारत में घुसने भी नहीं दिया था। हालांकि जब छूट दी तो कभी उनका मुँह भी नहीं पकड़ा। मिशनरियों को आने देने का दोष यदि अंग्रेज का है तो स्वतंत्र भारत ने भी आज तक उनपर कोई रोक नहीं लगाई है।
जिसके हाथ में सत्ता थी, जिसके पास ताकत थी वो ऐसी चाल क्यों चलेगा कि अपने लिए इतनी क िन किताबों को पढ़े, उसे समझे, और फिर अपनी तरफ से कुछ जोड़ कर किताब को भ्रष्ट करे? इस मुद्दे पर अंग्रेज को दोषी बस इस बात का मान सकते हैं कि उसने अनुवाद गलत किए।
पर अब तो ऐसा नहीं है कि इंग्लिश जानने वाले भारतीय विद्वान हैं ही नहीं, या भारतीयों की साख किसी से कमतर हो। अनुवाद गलत हुए तो अब सुधारने में क्या दिक्कत है? और जो यह कहते हुए स्वयं का बचाव किया जाता है कि अंग्रेजों ने संस्कृत ग्रन्थों में मिलावट की है, तो भई अब तो देश आजाद है। संस्कृत विद्वानों की कमी नहीं हुई अभी, सुधार क्यों नहीं लेते? आखिर कब तक केवल और केवल दोष देते रहेंगे? हर बात में अंग्रेजों को, मुगलों को दोष देकर फिर चुप लगा जाने से किसका क्या भला हो जा रहा है, सिवाय मिथ्या गर्व, आत्म-प्रवंचना के।
एक उदाहरण लीजिए। शायद इससे बेहतर दृष्टिकोण मिले। हर शहर में आशिकों-लम्पटों-चरित्रहीनों के लिए एक मीनाबाजार होता है। बनारस का मंडुआडीह, कोलकाता का सोनागाछी इत्यादि। कहते हैं कि इन सबकी शुरुआत सल्तनत-मुगल-अंग्रेज दौर में हुई थी जब शहरों के बीचोबीच वेश्यालयों का निर्माण किया गया। यह शहरों का अंधपतन था। यह मुगलों और अंग्रेजों की बदमाशी थी, भारत के चरित्र को दागदार करने की कोशिश थी।
ताज्जुब है कि आज न मुगल हैं, न अंग्रेज। फिर भी हर शहर में मीनाबाजार हैं!
बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
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