By
Rahul Roi
एक वैचारिक विश्लेषण (साझेदारी)
(A conceptual analysis (partnership)
अक्सर ही यह देखा गया है भारत बनाम इंडिया की भावुकतापूर्ण लड़ाई में हम भारत के पक्ष में खड़े होकर तमाम बातों की तोहमत इंडिया पर लाद देते हैं। यह शब्द के अर्थ से शुरू होता है और पूरी व्यापकता से इंडिया पर हमला करता है।
हमको यह पढ़ाया गया है कि जब फारसियों ने भारत पर चढ़ाई की तो उन्हें भारत की सीमा निर्धारित करने वाली नदी सिंधु को पार करना पड़ा। इस सिंधु को वे हिन्दू कहते थे, और इसके दूसरे तट से आगे के सभी निवासियों को हिन्दू कहा जाने लगा। पर तथ्यों और तर्कों से यह सिद्ध किया जा सकता है कि ऐसा फारस के प्रभाव से नहीं बल्कि महाप्राण 'ह' से लगभग सभी भाषाओं के विशेष प्रेम के कारण हुआ था।
ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के किसी पुराने अंक में इंडियन का अर्थ गरीब और 'अपराधी लोग' लिखा हुआ है। इसे इस तरह समझिए कि बिहार और बिहारियों को कुछ वर्ष पूर्व तक इसी देश में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता था। बिहार और बिहारी की कुछ भी परिभाषा गढ़ देने से महान बिहार का इतिहास, उसके श्री-शौर्य में फर्क नहीं पड़ता।
ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी का अस्तित्व कितना भी पुराना हो, मौर्य काल जितना पुराना तो नहीं होगा न? इतिहास का पिता कहे जाने वाले महान ग्रीक 'हेरोडोटस' ने अपनी पुस्तकों में 'इंडोई' का जिक्र सुनहरे अक्षरों में किया है। हेरोडोटस का जीवनकाल ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी है। जब महान अलेक्जेंडर ने भारत विजय का ख्वाब देखा था, उस समय महान चन्द्रगुप्त ने भारत में मौर्य वंश की नींव रखी थी। अलेक्जेंडर ने भारत को इंडोई कहा और भारतीयों ने अलेक्जेंडर को सिकन्दर तथा ग्रीक निवासियों को यवन। सिकन्दर या यवन कहलाने से इनकी वीरता, सम्मान अथवा घृणा में कोई फर्क नहीं पड़ा था।
सिंधु को उन्होंने इंडस कहा और इंडस से बना इंडोई जो कालांतर में इंडिया बन गया। और यह चौथी-पाँचवी शताब्दी ईसापूर्व हो चुका था। यूरोपियनों ने भारत को सोने की चिड़िया चौदहवीं शताब्दी में कहा था। उस समय तक इसे कई-कई बार लूटा जा चुका था। सोचिये कि उससे हजार साल पहले मौर्यकाल में यह क्या रहा होगा! विश्व में इसकी क्या धाक रही होगी! उस समय इंडिया या इंडोई कहा जाना कहीं से भी अपमानजनक तो नहीं कहा जा सकता?
शब्दों की बात रहने दें और भावों को पकड़ते हैं। जब कोई भारत बनाम इंडिया की बात करता है तो कोई भी उस कसक को महसूस कर सकता है कि अगला अपने पुरातन-सनातन आचार-विचार-व्यवहार-संस्कार की ओर देख रहा है और वर्तमान की तमाम चीजों से उसका मन व्यथित है। वह इस दूषित 'इंडिया' मानसिकता को पवित्र 'भारत' मानसिकता से बदल देना चाहता है। सुनने में, सोचने में यह प्रणम्य लगता है पर क्या वाकई में ऐसा कुछ हो सकता है?
हम किस कालखंड को एक सीमारेखा मान भारत और इंडिया में स्पष्ट विभाजन कर सकते हैं?
पुरावैदिक काल में स्वच्छंदता ही जीवन था। विवाह संस्था का अस्तित्व नहीं था। सबको अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता थी। लोग कुछ समय साथ रहते, फिर किसी भी वाजिब-गैरवाजिब कारणों से अलग हो जाते और किसी अन्य के साथ जोड़ी बना लेते। इसे आज के जमाने में लिव-इन कहा जाता है।
कुछ शताब्दियों बाद सुधार की आवश्यकता महसूस हुई होगी और विवाह संस्था का अस्तित्व आया। पर उसमें भी बहुपत्नी विवाह, बहुपति विवाह देखे गए। प्रचेता भाइयों की एक ही पत्नी थी। द्रौपदी के पाँच पति थे। बहुपत्नी विवाह के अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे। यह 'भारत' में हुआ था। क्या यह वर्तमान में सही कहा जा सकता है? यद्यपि आधुनिक इंडिया में कुछ जगहों पर जैसे उत्तराखण्ड, हरियाणा, पंजाब में एक से अधिक पति की परम्परा जीवित है। हालांकि अब यह नगण्य है।
रक्तसम्बन्धों में विवाह को आज के समय में बहुत घृणा से देखा जाता है। इस्लामी सभ्यता को हेयदृष्टि से देखने का एक कारण यह भी है कि उनमें चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों में, और विशेष परिस्थितियों में मामा-भांजी जैसी रिश्तेदारियों में शादियां हो जाती हैं। पर यह भारत में भी हुआ है। अर्जुन-सुभद्रा फुफेरे-ममेरी भाई-बहन थे। नकुल की शादी पांडवों के फुफेरे भाई शिशुपाल की बेटी करेणुमती से हुई। साम्ब-लक्ष्मणा, इत्यादि तमाम उदाहरण हैं। वर्तमान में क्या कोई ऐसा देखना चाहेगा? यद्यपि आंध्र प्रदेश में यह परिपाटी आज भी है कि भाई के बेटे की शादी बहन की बेटी से की जाती है।
हम बोर्डिंग स्कूलों को, वृद्धाश्रमों को हेय दृष्टि से देखते हैं। भला कोई कैसे अपने बच्चों को खुद से दूर रख सकता है? कोई कैसे अपने माता-पिता को उनके हाल पर छोड़ सकता है? पर हम जानते हैं कि पुराने समय में ब्रह्मचर्य आश्रम और सन्यासाश्रम हुआ करते थे। लगभग समानता तो है ही!
बृहदारण्यक उपनिषद की ऋचाओं का निर्माण
ऋषि गार्गी वाचकन्वी और याज्ञवल्क्य के संवादों का परिणाम है। याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी भी महान ऋषि कही जाती हैं। अरुंधति का नाम सम्मान से लिया जाता है और आकाश में उनके नाम का एक तारा भी है। कैकेयी जैसी क्षत्राणियां भी थीं जो युद्ध में भाग लेती थी। गांधारी और द्रौपदी जैसी राजनीतिज्ञ भी इतिहास में अमर हैं। सत्ता, आध्यात्म, विज्ञान के शीर्ष पर यदि महिलाएं थी तो निश्चित ही इन क्षेत्रों के सभी पायदानों पर महिलाएं रही होंगी।
क्या आज के 'इंडिया' में भी ऐसा नहीं है?
राष्ट्र और संस्कृति को किसी कालखंड में बांटकर यह कह देना कि उस समय सब सही था, और आज सब गलत है, न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता। हर कालखंड की अपनी अच्छाइयां हैं, अपनी बुराइयां हैं। हमने इस भारत में कई बार पराजयों के अपमान का घूँट पिया है और इंडिया को बुलन्दी छूते देख रहे हैं।
मेरे लिए भारत और इंडिया में कोई फर्क नहीं है। उस समय भी हम सतत सुधार की प्रक्रिया में थे, आज भी हैं। राष्ट्रों और संस्कृतियों का मूल उद्देश्य ही है सतत उत्कृष्टता प्राप्त करना। भूतकाल हमें मार्ग दिखाने के लिए है, कीलित करने के लिए नहीं। हम भूतकाल की ओर नजरें बनाए रखकर भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं।

बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।