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14-Jun-2019 , Updated on 6/14/2019 1:54:32 AM
Karm aur "Bhagavad Geeta"
गहना_कर्मणो_गतिः .....
गीता को यदि हम बारीकी से अध्ययन करें तो ये पूरा शास्त्र कर्म के सिद्धांत को परत दर परत खोलकर समझाता है।
योग ध्यान द्वारा समाधि के सोपान चढ़ना हो या एक स्वस्थ सांसारिक सफल जीवन जीना हो, कर्म के सिद्धांत को समझ कर चलना अंधकार में टॉर्च लेकर चलने जैसा है।
मैं गुरुजनों से प्राप्त समझ और जीवन की उठा पटक के आधार पर इस दुरूह विषय की व्याख्या का दुस्साहस कर रहा हूँ। उपस्थित ज्ञानी महात्मा इस बालसुलभ अनधिकार चेष्टा पर आशीर्वाद बनाए रखें, ऐसी आशा है।
सबसे पहले तो हमें अतिप्रश्न को समझ कर उससे बचना होगा। अति प्रश्न है , "संसार का पहला कर्मबंधन कब और किसे व क्यों हुआ ???" इस प्रश्न से हमारी मूल समस्या निवृत्त नहीं होती वरन् निरर्थक दार्शनिक उहापोह का जन्म होता है जो गोल गोल घुमाती है पहुँचाती कहीं नहीं।
हमारा प्रश्न है, "किन कर्मों के कारण हम एक सीमा बद्ध जीवन जीने को बाध्य होते हैं??? क्या इस बाध्यता के साथ कुछ किया जा सकता है ???"
सर्वप्रथम अध्यात्म के उत्कृष्ट चिंतन पर आधारित कर्म विभाजन समझना होगा।
जीव अष्टधा प्रकृति के वशीभूत हो कर्म के बंधन में पड़ता है।
५ तत्व - आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये ५ तत्व हैं जो देह और मन का निर्माण करते हैं।
३ गुण - सत्व, रज और तम जो देह और मन में कर्म के आधार भी बनते हैं और कर्म को आधार बनाकर प्रबल निर्बल भी होते हैं।
सर्वप्रथम तो ये समझ लें कि कर्म मानसिक प्रभाव या #Psychic_impressions होते हैं। मात्र देह से संपन्न होने वाली #क्रिया होती है कर्म नहीं। क्रिया बंधन नहीं डालती। कर्म बंधन डालते हैं व मुक्त भी करते हैं।
कर्म का पूरा चक्र तीन विभागों में समाहित है;
१- संचित, २- प्रारब्ध, ३- क्रियमाण।
१- #संचित_कर्म :-- आपकी अनंत जन्मों की यात्रा में संपादित कर्मों का विशद् भंडार। ऐसे जैसे आपके बैंक अकाउंट में जमा बड़ी राशि।
२- #प्रारब्ध_कर्म :-- संचित कर्मों के विशाल भंडार से एक जन्म के लिए आवश्यक प्राप्त कर्म राशि। जैसे आपके बैंक बैलेंस से कार्य विशेष के लिए निकाली गई निश्चित राशि।
३- #क्रियमाण_कर्म :-- प्रारब्ध को भोगते हुए जो कर्म हो रहे होते हैं वो कर्म।
#दुष्चक्र : अब ये तीनों मिलकर एक चक्र निर्मित करते हैं। संचित से प्रारब्ध प्राप्त होता है, प्रारब्ध भोगने में क्रियमाण बनता है और क्रियमाण फिर संचित कर्मों के विशाल भंडार में जमा हो जाता है, प्रारब्ध बनकर भोगे जाने के लिए। किंतु दुष्चक्र यही है कि हर प्रारब्ध से क्रियमाण बनता है जो संचित बनजाता है पुनः प्रारब्ध होने के लिए।
#चक्रभंग : अब बड़ा प्रश्न ये उठता है कि, "क्या ये चक्र अनंत है???"
हाँ, नहीं भी। गीता में "भगवान मम माया दुरत्यया" कहने के बाद उसे " अनादि अंतवती ..." भी. कहते हैं। इसका आरंभ तो अनादि है किंतु साधक के लिए निजी रूप से इसका अंत संभव है। सामुहिक रूप से इसका अंत संभव नहीं है।
मनोविज्ञान से समझें। आप मानसिक प्रभाव से बंधन में पड़ रहे हैं। मानसिक प्रभाव आपकी किसी अनुभव को दी गई सुखद या दुखद व्याख्या मात्र हैं। अनुभव आप ५ ज्ञानेंद्रियों से लेते हैं। फिर मन स्मृति के आधार पर इस अनुभव को व्याख्या देता है। यदि आप व्याख्या न करें तो मानसिक प्रभाव नहीं बनेगा। किंतु ये बुद्धियोग संपन्न सिद्ध पुरुषों के लिए संभव है। हमारे लिए ये बौद्धिक गुंडागर्दी से अधिक कुछ नहीं है।
इसलिए गुरु परंपरा को सनातन धर्म में एक अनिवार्यता माना गया है चक्रभंग के लिए। एक व्यक्ति जिसने चक्रभंग किया हो एक #Superpsychic_Path अतिमानसिक पथ निर्मित करता है। उसकी ऊर्जा में आए हर चित्त को वह समय की अनंत परिधि तक अपने पथ पर खींचने में सक्षम होता है। चाहे वह कितना ही पहले देह छोड़ चुका हो। उस ऊर्जा को समझने और आरंभ के लिए वो अपने पीछे परंपरा छोड़ कर जाता है।
आगे का विषय साधनजगत के गूढ़ रहस्यों से पटा पड़ा है। अभी इतना ही। वो कहानी फिर सही....।
"विचारक"

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