By
Sanat Shukla
मनोविज्ञान की दृष्टि से: #आतंकी_सबजार_बट
"क्या आपको पता है कि हर इंसान अपने जीवन की कहानी खुद लिखता है?"
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एक मनोवैज्ञानिक हुए हैं मैकएडम्स। उन्होंने दो थ्योरी दी है। एक को "रिडंपटिव थ्योरी" कहते हैं और दूसरी को "कन्टेमिनेशन थ्योरी"।
"रिडंपटिव थ्योरी" में हम उनको रख सकते हैं, जो अपने जीवन में बुरी परिस्थितियों से खुद को उबार कर अच्छी परिस्थितियों की तरफ बढ़ते हैं। सरल भाषा में, ऐसे लोग बुरे से अच्छे की ओर बढ़ते हैं। ऐसे लोग समाज को, आने वाली जेनेरशन को कुछ देने लायक मानसिकता रखते हैं। ऐसे लोग ज्यादातर हमेशा पॉजिटिव विचार रखते हैं। इनके जीवन में शांति रहती है, अक्सर खुश रहते हैं, और अपने जीवन को सार्थक मानते हैं। अपने जीवन पर पूर्ण नियंत्रण होता है और ऐसे लोग खुद को प्यार भी करते हैं। अपनी अच्छी इमेज बनाने के लिए हमेशा सकारात्मक रहते हैं। ये अपनी जिंदगी की कहानी अपने हिसाब से लिखते हैं, और जरुरत पड़ने पर एडिट भी करते रहते हैं। जैसे अगर कोई बुरी लत लग जाए, तो उसको समझकर उस लत से उबरने का प्रयास करते हैं।
लेकिन "कन्टेमिनेशन थ्योरी" के अंतर्गत वो लोग आते हैं, जो जीवन में ऊंचे स्तर से नीचे की ओर बढ़ते हैं, या फिर अच्छे से बुरे की ओर बढ़ते हैं। ऐसे लोग धीरे धीरे सिर्फ अपने बारे में सोचने लगते हैं। उनका समाज की उन्नति में योगदान देने का विचार समाप्त हो जाता है, और एक दिन वे कुछ योगदान देने लायक ही नहीं बचते हैं। फिर वो तनाव और अवसाद से ग्रसित हो जाते हैं। ऐसे लोग किसी भी सुधार (एडिट) के बारे में नहीं सोचते हैं, जैसा जीवन चलता जा रहा है, जैसी कहानी लिखती जा रही है, वैसे ही चलने देते हैं। और फिर,.. एक दिन वो बुराइयों से इतने कन्टेमिनेटेड (अशुद्ध) हो जाते हैं कि,.. खुद को सुधार सकने लायक क्षमता खो बैठते हैं। फिर उनको जीवन में कोई आशा की उम्मीद नहीं दिखती है। निराशा और अवसाद के गहरे समुन्द्र में फंस कर अपनी कहानी का अंत कर बैठते हैं।
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मैकएडम्स कहते हैं कि ऐसे कन्टेमिनेटेड लोगों के लिए साईकॉलजी और साइकोथेरेपी एक वरदान है। इसमें मनोवैज्ञानिक उनकी जिंदगी के पन्नों को एक एक कर खोलता है। और फिर जहाँ जहाँ अशुद्धि मिलती है, वहां वहां पॉजिटिविटी डाल कर एडिट करता है। फिर उस इंसान को अपनी ही कहानी अच्छी लगने लगती है। उसको लगता है कि उसकी जिंदगी इतनी बुरी भी नहीं थी, और उन बुराइयों से कुछ सीखा भी जा सकता है। फिर इस तरह उसका अपनी जिंदगी पर फिर से कण्ट्रोल हो जाता है। अगर आपने हाल में आई एक फिल्म "डिअर जिंदगी" को संजीदगी से देखा है, तो उसमें नायक कुछ कुछ ऐसा ही करने का प्रयोग करता है।
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अब आते हैं अपने हिन्दू धर्म पर। क्या ऊपर वर्णित तथ्य से आपको दो तरह के लोग समझ आये? "संत" और "असंत", या सज्जन और दुर्जन? क्या आपको अंगुलिमाल नामक डाकू याद आया ? वही अंगुलिमाल जो बौद्धकालीन एक दुर्दांत डाकू था, जो राजा प्रसेनजित के राज्य श्रावस्ती के जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। वही डाकू जो बाद में गौतम बुद्ध की संगति में आकर संत बन गया। इसीलिए हमारे धर्म की हर पुस्तक में सत्संग (सत+संग) करने कहा गया है। क्योंकि आप जिनसे मिलते हैं, जिनके साथ उठते बैठते हैं, जैसी पुस्तकें पढ़ते हैं, एक दिन ऐसा आता है कि आप भी वैसे ही बन जाते हैं। और हाँ, ऐसे लोग निजी जीवन के साथ साथ आपको फेसबुक पर भी मिलेंगे, इसलिए negative विचारों से दूर रहें।
"इसी theory के अन्तर्गत आप उस मरे आतंकी कमांडर की जिंदगी को रख कर भी देख सकते हैं, जो प्यार में नाकाम होकर हत्यारा, आतंकवादी बन गया था।" अगर उसको इतनी ही नाकामी थी, तो उसको आतंकियों से मिलने के बजाय, किसी मनोचिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए थी।"
तो, मशहूर मनोवैज्ञानिक मैकएडम्स ने 30 साल की रिसर्च के बाद ये ज्ञान आज जाकर प्राप्त किया है, जबकि यही सब बातें हमारी धर्मपुस्तकों में प्राचीन काल में लिख दी गईं हैं। लेकिन हम उनको तबतक नहीं मानेंगे, जब तक कोई पश्चिमी गोरा यही बात न कह दे। ...और तब भी इस शोध का श्रेय उसे ही देंगे हम। क्यों, सही कहा न मैंने??
शुक्ला जी !!!
"जय हिन्द..!!"
