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27-May-2019, Updated on 5/27/2019 1:01:44 AM
"Religion and Power"
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"धर्म और शक्ति"
(Perspective)
जब विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत पर आक्रमण किये, तो उन्होंने मंदिरों तथा ज्ञान के केंद्र विद्यालयों के सर्वनाश का कार्य, आवश्यक सुनिश्चित किया। उसके बाद चाटुकार भारतीय इतिहासकारों ने उन विधर्मी अत्याचारी शासकों का झू -मू का महिमामंडन किया और हम स्वयं भी सत्य को सोचने की जहमत उ ाने की कोशिश न किये न कर रहे हैं।
हम कभी नहीं सोचते कि स्थापत्य कला के जितने नमूने ताजमहल और मकबरों-मस्जिदों के रूप में भारत में पाए जाते हैं, उनका एक प्रतिशत भी उन हमलावरों के मूल देशों में क्यों नहीं मिलते।
महमूद गजनवी तथा बाबर से लेकर औरंगजेब तक ने अपनी 'सरकारी' आत्मकथाओं में यह साफ़-साफ़ उद्धृत किया है कि, "हमने काफिरों के मंदिरों को तोड़ने जैसा फक्र का काम किया है जिसके लिए हमें जन्नत में हीरे माणिक्यों से बने राजमहल 72 हूरों के साथ प्रदान किये जायेंगे। उन्हीं मंदिरों की 'पूज्य' मंदिरों की मूर्तियों को, हमने अपनी मस्जिदों तथा दरगाहों इत्यादि के रास्तों के पायदानों के पत्थरों में तोड़ कर चिनवा दिया है, जिससे इन हिन्दुओं की आस्थाओं को हर पल हम अपने क़दमों से रौंद कर उनको अपमानित करने का सुख प्राप्त करते रहें।"
क्या हम हिन्दू, उन्हीं मस्जिदों-दरगाहों पर चढ़ावा चढाने जाने के वक़्त कभी सोचते हैं कि हमारे पैरों के नीचे इन्हीं पत्थरों में महादेव, श्रीराम, कृष्ण, लक्ष्मी, दुर्गा सरस्वती इत्यादि देवी-देवताओं की मूर्तियों के हिस्से दफन किये गए हैं, और हम उन्हीं के सीने पर चढ़कर अपनी गाढ़ी कमाई आज भी इन विधर्मियों को ही देते आ रहे हैं?
उस समय हम पर कितने अत्याचार हुए होंगे कि करोड़ों लोगों ने विधर्मी हो जाना कबूल कर लिया, हमने कभी यह सोचा? (जी हाँ, दक्षिण एशिया के 98% से अधिक विधर्मी, 'कन्वेर्टेड' किये गए ही हैं।) इन अत्याचारों के बारे में नंगा सच पढ़ना है तो आपको कर्णाटक के कन्नड़ लेखक 'एस एल भैरप्पा' की पुस्तक 'आवरण' पढ़िए। आपकी आत्मा काँप जायेगी यह सच जानकर कि हमारे पूर्वजों ने कितने घिनौने-घिनौने अत्याचार सहे, केवल अपना धर्म बचाने के लिए। जो लोग नहीं सह पाए थे अत्याचार, वही लोग धर्मान्तरित हुए। विधर्मियों के इन कुकृत्यों का उद्धरण भैरप्पा जी ने उन्हीं सबूतों के साथ किया है, जो इन विधर्मी शासकों की 'सरकारी दस्तावेजों रूपी जीवनियों' में उन्हीं के लेखकों द्वारा लिखा हुआ है।
उदाहरणार्थ, 'साकी मुस्ताक खान' ने अपने बादशाह-ए-आलम 'औरंगजेब' की हुकूमत की तारीखों के रूप में, दरबार में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर 'मासिर-ई-आलमगिरी' नामक किताब लिखी है। इसमें साफ़-साफ़ लिखा है कि, "1669 में बादशाह के हुक्म के मुताबिक़ ही काशी विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ कर, इसकी सरकारी रपट दरबार में भेज दी गई। उसके बाद उसी मंदिर की दीवारों और खम्भों पर, मंदिर जितनी ही विशाल मस्जिद (ज्ञानवापी मस्जिद, जो कि आज भी वहीँ स्थित है।) खड़ी करवा दी गई।
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जब ये किसी भी राज्य पर आक्रमण करते थे, तब वहाँ के सारे ब्राह्मणों की निर्दयता से हत्या करके, उनकी लाशों के ढेर के बीच में देवी देवताओं की मूर्तियों को भी तोड़ कर डाल देते थे। उसके बाद उपस्थित जीवित बचे जनसमूहों के धर्मपरिवर्तन करवाने की मंशा से यह ऐलान करवाया जाता था कि, "देख लो अपने भगवानों को, जो अपनी रक्षा नहीं कर पाया वो तुम्हारी रक्षा भी कैसे कर सकता था। इससे यह साबित हो जाता है कि हमारा ही मजहब शक्तिशाली है। हमारे मजहब में आ जाओ, और स्वयं को शक्तिशाली महसूस करो।"
इस तरह लालच देकर, लाशों को दिखाकर जनता को डरा-धमका कर भी धर्मपरिवर्तन कराये जाते थे। लेकिन ये परिवर्तित लोग फिर भी दोयम दर्जे के ही व्यवहार पाते थे। संडास सफाई, मजदूरी इत्यादि के काम ही इनसे लिए जाते थे।
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मैं यहाँ यह समझना तथा समझाना चाहता हूँ कि, यदि हम धर्म की ताकत की बात करें तो, आज सँसार के दो प्रमुख धर्म इस्लाम तथा इसाई, दोनों के ही अवतार अपने-अपने जीवन में बुरी मौत ही मरे, फिर भी उनका "धर्म" ताकतवर कैसे हुआ?
और इन्हीं के मौलवी-पादरी आज भी यही कहते हैं हमसे कि, "जो मूर्तियाँ अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं, वे तुम्हारी रक्षा कैसे करेंगी?" उनसे पलट कर सिर्फ यही पूछ लो एक बार साहस करके कि, "चलो ीक है, पत्थर की मूर्तियाँ रक्षा नहीं कर सकतीं हमारी, लेकिन जरा यह तो बताओ कि जो मुहम्मद तथा ईसा मसीह, स्वयं जीवित रहते हुए भी स्वयं के प्राण न बचा सके तथा बुरी और वीभत्स मौत मरे, उनके द्वारा चलाया गया धर्म ताकतवर कैसे? और पत्थर की मूर्तियों की ताकत की जीवित भगवान् की ताकत से तुलना भी कैसे हो सकती है?"
ये धर्म की ताकत नहीं, बल्कि उसके वहशी अत्याचारी अनुयाइयों की ताकत होती है। हमारे लोगों के हारने का कारण हमारे धर्म का कमजोर होना नहीं है, न ही हमारे भगवानों का कमजोर होना है। बल्कि हमारा इन अत्याचारियों के समक्ष 'केन्द्रित तथा संग ित रूप से खड़ा न हो पाना' है। इसलिए हमारे लोग इनके वीभत्स अत्याचारों के भय से घुटने टेक देते थे।
यद्यपि कि मैं साहित्य तथा इतिहास की पढाई से कोसों दूर, विज्ञान और इंजीनियरिंग का ही विद्यार्थी रहा। तथापि अब अपने पूर्वजों के इतिहास तथा उनके संघर्षों की गाथा को सिर्फ जानने और उन्हें महसूस करने के लिए सैकड़ों पुस्तकें पढ़ रहा हूँ, आगे भी यह यात्रा यूँ ही अनवरत रहेगी।
अध्ययन के इसी क्रम में मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिरों को विधर्मियों के कब्जों से छुड़ाने के लिए सर्वाधिक प्रयास, हजारों किलोमीटर दूर रहने वाले 'मरा ों' ने किया। बाजीराव से लेकर शिवाजी महाराज तक, सबने आजीवन यही कोशिश किया। मूल काशी अब नहीं है। अब काशी में अधिकतर जो मंदिर, घाट, और श्मशान स्थल हैं, वे सब मरा ों ने बनावाये हैं। काशी को मुसलमानों की पकड़ से छुड़ाकर, ध्वस्त किये मंदिरों की जगह उन्हीं खम्भों इत्यादि के ऊपर बनवाई मस्जिदों को खाली करवा कर मंदिरों का पुनर्निर्माण कराने की भरसक कोशिश प्रत्येक मरा ा पेशवाओं ने की थी। साम दाम दंड भेड सभी तंत्रों का प्रयोग भी किया, ताकि काशी विश्वनाथ के मूल स्थान को प्राप्त किया जा सके।
बाजीराव प्रथम ने तो ज्ञानवापी मस्जिद को तुडवा कर काशी विश्वनाथ को पुनर्स्थापित करने को अपना लक्ष्य ही घोषित कर दिया था। लेकिन उनके बाद, बालाजी बाजीराव (1740-1762) ने तो पूरी काशी को ही 'किसी भी तरह' स्वतंत्र करवाने का बीड़ा उ ा लिया था। 1744 में वो अपनी सेना के साथ मिर्जापुर तक आ भी पहुंचे, लेकिन अवध के नवाब सफ़दरजंग को पता चल गया। उसने तुरंत काशी पहुँच कर सारी हिन्दू जनता को भाले की नोक पर घेर कर, कुछ ब्राह्मणों द्वारा बाजीराव तक सन्देश पहुंचवाया कि यदि उसने काशी में कदम भी रखा तो यहाँ का एक भी मनुष्य जीवित नहीं छोड़ा जाएगा, सबका बर्बरता पूर्वक क़त्ल करवा दिया जाएगा। इस प्रकार बाजीराव को प्रजा की रक्षा के नाम पर ही लौट जाना पड़ा।
यही थी मजहबी वीरता तथा उनके शक्तिमान होने की एक निकृष्ट झलक।
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